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Ek Nanha Sa Keeda | Gyanendrapati
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एक नन्हा-सा कीड़ा | ज्ञानेन्द्रपति  यह एक नन्हा-सा कीड़ाअभी जिसको मसल जाता पैरजीवन की क्षणभंगुरता पर विचारने का एक लमहाएक ठिठका हुआ क्षणजिसको जल्दी से लाँघने मेंनहीं दिखताधरती की सिकुड़न में खोये हुए-से इस कीड़े मेंकितने भूकम्पों की स्मृति साँस लेती है।इतिहास के कितने युगों की स्मृतिकि इसके लिए यह कल की ही बातजव वनमान्ष ने दोनों अगले पैर उठाए थेहाथों के आकार में मानव-सभ्यता ने लिये थे पाँवअकारण गंभीर और करुण होने के क्षण मेंनहीं दिखताकि यह कीड़ा हमें भी देख रहा हैकि यह जो बचने की भी कोशिश नहीं करता हुआ निरीह-सा कीड़ा हैन जाने कितने प्रलयों में छनकर निकली है इसकी जिजीविषाऔर इसकी फुदक मेंइतिहास के न जाने कितने अगले युगों तकजाने की उमंग है 

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