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Jagah | Vishwanath Prasad Tiwari
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00:02:23
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जगह | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी खड़े-खड़े मेरे पाँव दुखने लगे थेथोड़ी-सी जगह चाहता था बैठने के लिएकलि को मिल गया थाराजा परीक्षेत का मुकुटमैं बिलबिलाता रहा कोने-अँतरेजगह, हाय जगहसभी बेदखल थे अपनी अपनी जगह सेरेल में मुसाफिरों के लिएगुरुकुलों में वटुकों के लिएशहर में पशुओंआकाश में पक्षियोंसागर में जलचरोंपृथ्वी पर वनस्पतियों के लिएनहीं थी जगहसुई की नोक भर जगह के लिएहुआ था महासमरहासिल हुआ महाप्रस्थाननहीं थी कोई भी चीज़ अपनी जगहजूतों पर जड़े थे हीरेगले में माला नोटों कीपुष्पहार में तक्षक,न धर्म में करुणान मज़हब में ईमानन जंगल में आदिवासीन आदमी में इन्सानराजनीति में नीतिऔर नीति में प्रेमऔर प्रेम में स्वाधीनता के लिएनहीं थी जगहनारद के पीछे दौड़ाविपुल ब्रह्मांड मेंजहाँ जहाँ सुवर्ण थावहाँ-वहाँ कलिऔर जहाँ -जहाँ कलिवहाँ-वहाँनहीं थी जगह।

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