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Torch | Manglesh Dabral
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00:02:37
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टॉर्च | मंगलेश डबराल मेरे बचपन के दिनों मेंएक बार मेरे पिता एक सुन्दर-सी टॉर्च लाएजिसके शीशे में खाँचे बने हुए थेजैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं।हमारे इलाके  में रोशनी की वह पहली मशीन थीजिसकी शहतीर एकचमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थीएक सुबह मेरे पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा बेटा,  इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो पिता ने हँस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता हैइसे रात होने पर जलाते हैंऔर इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैंदादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा थामुझे रात से ही सुबह का चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती हैपिता को कोई जवाब नहीं सुझा वे ख़ामोश रहे देर तकइतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनीआग माँगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती हैहमारे वक्त की विडम्बना में कविता की तरह।

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