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Kya Karun Kora Hi Chhor Jaun Kaagaz? | Anup Sethi
Kya Karun Kora Hi Chhor Jaun Kaagaz? | Anup Sethi

Kya Karun Kora Hi Chhor Jaun Kaagaz? | Anup Sethi

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क्या करूँ कोरा ही छोड़ जाऊँ काग़ज़? | अनूप सेठीक से लिखता हूँ कव्वा कर्कशक से कपोत छूट जाता है पंख फड़फड़ाता हुआलिखना चाहता हूँ कलाकल बनकर उत्पादन करने लगती हैलिखता हूँ कर्मठ पढ़ा जाता है कायरडर जाता हूँ लिखूँगा क़ायदाअवतार लेगा उसमें से क़ातिलकैसा है यह काल कैसी काल की रचना-विरचनाऔर कैसा मेरा काल का बोधबटी हुई रस्सी की तरहउलझते, छिटकते, टूटते-फूटतेपहचान बदलते चले जाते हैंशब्द, अर्थ, विचार, आचार और व्यवहारक से खोलना चाहा अपने समय का खाताक से ही शुरू हो गया क्लेशक्या क्ष, त्र, ज्ञ तक पहुँचना होगा मुमकिन?जब जुड़ेंगे स्वर व्यंजनबनेंगे शब्दफिर अर्थगर्भा शब्दवाक्य और विचारआचार और व्यवहारतो किस-किस तरह के खुलेंगे अर्थऔर कितना होगा अनर्थक्या करूँ कोरा ही छोड़ जाऊँ काग़ज़?

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